Premanand Ji Maharaj Pravachan जीवन के लिए अनुपम निधि है भगवत मार्ग के साधक को चाहिये कि वो निरंतर अपने सद्गुरु के सत्संगो का श्रवण करे और कठिनाई से उसका पालन करे यह एक बात आपको कभी भगवान के दर्शन नहीं होने देगी।
चित्रकूट से आये भगवत भूषण विजेंद्र जी कहते है राधे-राधे महाराज जी ! महाराज जी भगवत प्राप्ति के प्रयास में कौन-2 से साधन की आवश्यकता रहती है और साधक को विशेषतया किससे सावधान रहना चाहिये?
प्रेमानंद जी महाराज प्रवचन
श्री प्रेमानंद जी महाराज कहते है कि ‘अहंकार’ पर विशेष सावधान रहना चाहिये
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल शोक दायक अभिमाना॥
समस्त साधनों का नाश करने की सामर्थ्य मात्र एक अहंकार में है। क्योंकि हम धर्म में ही काम, क्रोध ,लोभ ,मद ,मत्सर का प्रभाव होता है। क्योंकि देह अभिमानी ही लोभी ही होता है, देह अभिमानी ही क्रोधी होता है, देह अभिमानी ही ईर्ष्या स्वभाव वाला होता है, मतलब मूल परमार्थ में बाधक वस्तु अहंकार है। जो मय है वह शुद्ध ब्रह्म है। जो मय अंतः करण धर्म में तादात्म्य हो गया है वह अविद्यया जनित है।
वहीं अंतः करण में जो हमारा अहम लीन हो गया है वही जीवत्व के भाव को प्रकाशित कर रहा है। अन्यथा स्वयं परमात्मा ही यहां विराजमान है । दूसरा कोई नहीं है । दैन्यता ही इस मार्ग में बढ़ने का सुखरूप है। जिसके हृदय में जितना अहम गलित हुआ है, उतना ही उत्तम साधनाओं को करने वाला साधक है । और जिसका अहम पुष्ट हो रहा है वह क्या साधक है।
सो सुखु धरम-करम जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज पाऊ।
तो भगवत प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है ये अहंकार ! अहंकार ही पूरी सृष्टि को नचा रहा है महातत्व के बाद ये सीधा अहंकार है। ब्रह्म मूल प्रकृति, त्रिगुणामित्क प्रकृति, महातत्व अहंकार बहुत ऊंचाई पर बैठा हुआ है अहंकार। और यही विनाशकारी है।
अहंकार के देवता शिव जी को कहा गया है। उनकी लीला संहार होता है। यह रजोगुण से प्रकट होता है । उपासक यदि राजसिक और तामसिक आहार, संग, दृश्य ,वार्ता, इनका त्याग करें और सतोगुण वृत्ति को बढ़ाये तो फिर भजन में सतोगुण मयी स्थिति हो जाएगी और इससे भगवत प्राप्ति हो जाएगा। प्रकृति, रचित वस्तु ,पद ,का अर्थ बंधनकारक है।
अस अभिमान जाई जन भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे।।
बस भगवान के सेवक होने का अभिमान हो
मैं प्यारे लाल श्याम का सेवक हूं बस यही अभिमान करना है । इसी अभिमान के बल से मालिन अभिमान नष्ट हो जाएगा । प्रभु का दास होते ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य यह सब परिवर्तित हो जाते हैं । यह सब सच्चिदानंद में लीन हो जाते हैं। जब तक देह अभिमान रहता है तो भयंकर प्रतिकूल रूप धारण करते हैं । और जब देह भाव प्रभु में समर्पित हो जाता है तो यही करुणा करके शांत हो जाता है। कोई सोच नहीं, कोई चिंता नहीं, एक अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है ।
ब्रह्म भूत प्रसन्नात्मा, ना शोचति, ना कांक्षति ।
।। राधे राधे।।