परिवार के लोग खुश नही | Shri Premanand Ji Maharaj Pravachan

सदगुरुदेव श्री प्रेमानंद जी अपने प्रवचनों में बार-2 हमें अपने कर्तव्यों का सही से भगवद भाव में रहकर पालन करने के लिए कहते आये है यदि अक्षरशः हम गुरुदेव की वाणी पर चले तो लोक-परलोक सब मंगल हो जाये और ऐसे प्रश्न परिवार में सबके साथ अच्छा व्यवहार करने पर भी कोई संतुष्ट नहीं हो पा रहा है, ऐसे में क्या करूं? मन में आये ही ना

रूचि त्रिवेदी जी ! राधे- राधे महाराज जी! आपके चरणों में दंडवत प्रणाम गृहस्थ जीवन में रहते हुए परिवार के प्रत्येक सदस्य के साथ अच्छा व्यवहार करने का प्रयास करती हूं लेकिन पारिवारिक जनों को संतुष्ट नहीं कर पाती जिससे मेरे भजन में बाधा उत्पन्न होता है गुरुदेव कृपा मेरा मार्गदर्शन करें।

श्री प्रेमानंद जी महाराज प्रवचन

हम भागवत में कई बार चर्चा किए हैं । असंतुष्ट हम तभी होते हैं जब हम अपने कर्तव्य को भूलकर सामने वाले के कर्तव्य को देखने लगते हैं। हमारी असंतुष्टता का कारण कहीं ना कहीं हमारी कामना होती है। जब हम केवल अपने कर्तव्य को देखेंगे तब हमें कोई असंतुष्ट कर ही नहीं सकता। सृष्टि में जैसे यह हमारे पति हैं, मेरे प्रति इनका क्या कर्तव्य है, यह न देखकर, मैं उनकी पत्नी हूं मेरा क्या कर्तव्य है? यह मानकर चलेंगे तो कोई आपको नहीं असंतुष्ट कर पाएगा आपका क्या कर्तव्य है सब में भागवत बुद्धि देखना हमारा यह सूत्र हमको बचा लेगा।
चिद् चिद् लक्षणं सर्वम् ।राधा कृष्णबल्लभम्।।

चाहे वह क्रुरता करें, चाहे वह ग़लत आचरण करें, चाहे दृष्टता करें ,यह बाहरी यंत्र हैं आंतरिक जो परम कारण है वह आराध्य देव बैठे हुए हैं । और यह हम देखने के लिए निकले हैं हमारा मार्ग क्या है

कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, कोई गुस्सा नहीं दिला सकता, कोई दुखी नहीं कर सकता, कोई हमें परेशान भी नहीं कर सकता, हम तभी दुखी और अशांत होंगे जब हम शास्त्र वाक्य गुरु वाक्य में गिर जाएंगे।

इस त्रिभुवन में कोई पैदा ही नहीं हुआ है, जो हमें अशांत करने वाला है, हमें दुखी करने वाला है, हमारी बुद्धि ही हमें अशांत करती है ,हम सबको संतुष्ट करने के लिए नहीं निकले हैं अपने आचार्य गुरुदेव को संतुष्ट करने के लिए हम उपासना कर रहे हैं। उनका हर वाक्य हम व्यवहार में वैसे उतारे जैसे वह कह रहे हैं । अगर आप अपनी राग द्वेष की बुद्धि के अनुसार आप असंतुष्ट हो रहे हैं तो यह आपका दोष है हमारे द्वारा कोई ऐसा आचरण ना बने तो हमारा हृदय आनंदित रहेगा। आप जो सोचो सोचते रहो यह तो आपकी बुद्धि है जो आपको दुख दे रही है। तो गृहस्थ धर्म में माता-पिता, सास ससुर, विविध रिश्ते नाते आए हुए अतिथि हैं। अगर सही ढंग से कर्तव्य निर्वाह कर लिया जाए तो वह यति को प्राप्त कर लेगा । अपने गृहस्थ में कोई अंतर नहीं होगा। गृह कार्य नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सेल विशाला।।

बड़ा कठिन होता है। क्योंकि जिससे आप सद्व्यवहार कर रहे हैं, सुख पहुंचा रहे हैं और वह कटु वचन बोल रहा है। जैसे बेटा है माता-पिता की सेवा कर रहा है और वही माता-पिता गाली दे रहे हैं और बाहर से आए हुए व्यक्ति से निंदा कर रहे हैं । आप कान से सुन रहे हैं । हम उनके कपड़े धोते हैं, उनकी सेवा करते हैं ,और यही हमारी निंदा कर रहे, हैं यह सोचकर दुखी हो रहे हैं तो आपका परमार्थ नष्ट हो जाएगा। हम जब अनुकूलता की मांग रखेंगे, कोई भी कामना रखेंगे, तो हमारे कर्तव्य कर्म में त्रुटि हो जाएगी और जहां कर्तव्य कर्म में त्रुटि हुई तो हृदय अशांत हो जाएगा ।

जो गलत आचरण में अनुराग रखते हैं उनको इन सब बातों से मतलब ही नहीं है जो थोड़ा धर्म मार्ग में चलते हैं उनके लिए है ।तो हम केवल अपने कर्तव्य का ही चिंतन करें ।उनका हमारे प्रति क्या कर्तव्य है ।यह चिंतन करने पर हमें दुख पहुंच सकता है। जैसे कोई शिष्य है वह अभद्र व्यवहार कर रहा है ,हम चाह रहे हैं वह सत् मार्ग में चले। नहीं मान रहा है, हम उससे विनती कर रहे हैं आपका और हमारा गुरु शिष्य का संबंध है ,आप जो कुमार्ग पर चल रहे हैं वह ठीक नहीं, तो अगर शिष्य में बुद्धि रही तो सत्मार्ग पर चलेगा नहीं तो वही गुरु वही शिष्य रहेगा । यही खेल हो रहा है।
बस स्वांग दिया गया है । यह स्वांग है सत्य नहीं ! सत्य तो एक है परम नाम ! ना कोई अधम है, ना कोई उच्च है, ना कोई जड़ है, ना कोई चेतन है ,”परम नाम -धाम सब कुछ राधे-राधे नाम है” बहुत जन्मों के साधना के बाद यह अनुभव होता है कि समस्त जगत भगवान वासुदेव हैं

बात मान लो तो जान जाओगे। ज्ञान मार्ग में जान करके जानना। और भक्ति मार्ग में मान करके जानना। बहुत सरल है मानने का ऐसा विग्रह दे दिया गया कि पत्थर को भगवान का रूप दे दिया गया और उससे मुरली मनोहर ठाकुर प्रगट हो जाएंगे । तो अगर मान लिया कि मेरे गुरुदेव ही मेरे भगवान है। तो मान लो आपके पति भी साक्षात् भगवान हैं उसके आपके सास ससुर में भगवान है। आपके बेटे के रूप में वात्सल्य सुख पाने के लिए भगवान हैं। तो कोई समस्या ही नहीं हमें सेवा भाव करना है उनके प्रति उनसे हमें अनुकूलता की चाह नहीं करना है, यह सिद्ध पुरुष का लक्षण है यही तो साधना है, मनमानी आचरण से दुर्गति भोगनी पड़ेगी निरंतर परमार्थ के पथिकों की बाणी सुनता है। भागवत प्रेमी महात्माओं के वचनों से एक अद्भुत समर्थ जागृत होती है। जो बड़े-बड़े व्रत, नियम, तप ,तीर्थ यात्रा धर्म अनुष्ठान से नहीं हो सकता। वह भागवत प्रेमी महात्माओं के क्षण मात्र वचन से हो सकता है । तो जो सर्वसमर्थ है वह माया में है। एक ही है जो सर्व रूप में भाष रहा है अगर नाम जप करते हुए कार्य करोगे तो, उसका जो फल होगा वह समता होगी, वह लाभ हानि नहीं होगी ,समता मिलेगी जो कर्म योग का फल है समत्व जितना आप अहम रखोगे उतना उस विधान से अपरिचित रहेंगे। और जितना अहम समर्पण होता रहेगा उतना ही उसकी विधान पर विजय प्राप्त कर पाएंगे।।

।। राधे राधे।।

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